संक्षेप मे अपना परिचय दीजिये ?
मेरा नाम अफ़ज़ल रज़वी है। होम टाउन मुंबई, काम किताब स्कूल कॉलेज सब मुंबई लेकिन मेरा मूल वतन उत्तर प्रदेश है। मुंबई के लोखंडवाला मे एक ZIMA नाम का इंस्टिट्यूट है, वहीँ सें स्क्रीन राइटिंग का डिप्लोमा किया और सात सालो सें बॉलीवुड मे छोटा मोटा राइटर हूँ और अब कुछ किताबें भी लिखता हूँ।
लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली ?
अब इसे प्रेरणा कहूं या क्या कहूं नहीं पता। लेकिन कुछ ना कुछ तो है। बचपन से लिखने का एक कीड़ा सा है। जैसे किसी शराबी को पिए बिना चैन ना आये वैसा ही हम जैसे राइटर का हाल है, जब तक लिखें नहीं आदत बेचैन रहती है। छोटा था तो अब्बू ( मरहूम खुर्शीद अनवर ) को कुछ उर्दू नॉवेल्स पढ़ते देखता था। अक्सर उन्हें कुछ ना कुछ लिखते देखता था। तब अहसास नहीं था कि जो मै सातवीं कक्षा से लिखना शुरू कर चुका हूँ वो लिखना मुझमे इसलिए आया क्योंकि मेरे अंदर मेरे पिता का वो गुण आया है। हम चार भाई और एक बहन, किसी ना किसी मे पिता की राइटिंग का डी एन ए तो आना ही था, मुझमे आ गया। इसके पीछे एक इमोशनल ट्रैक भी है। अब्बू काफी सारे नॉवेल लिख रखे थे , लेकिन उस समय किताबें पब्लिश करवाना इतना आसान नहीं था। वो जो कमाते थे, उस से या तो हमको पालते या फिर अपनी राइटिंग के सपने को पूरा करते। उन्होंने अपनी किताबों को बस कागज़ो पर रहने दिया। उनकी किताबें अम्मी बक्से मे संभाल कर रखती थीं लेकिन क्या पता कैसे वो सारी कहानियां जो मेरे पिता ने लिखी थीं, उन्हें चूहे खा गए। मुझे नफरत है चूहों सें। फिर मुंबई की छब्बीस जुलाई आयी और जो कुछ उन कहानियो के हिस्से थे, वो बह गए। खैर, अब्बू तो चले गए लेकिन वो एक लेखक बनकर शायद मेरे अंदर रह गए। आप इसे प्रेरणा या कुछ भी कह सकते हैँ।
अपनी किताब क्रिमनल्स के बारे मे कुछ बताइये ?
क्रिमनल्स –बुक वन मिशन स्टार्ट नाउ, जैसा कि टाइटल है.. एक क्राइम बुक सीरीज़ है, और ये मेरी पहली बुक सीरीज़ का बुक वन है। कहानी का फ्लो, बेस..टोटली क्राइम को लेकर है लेकिन ये क्राइम उस तरह का नहीं जैसा हम अब तक देखते और पढ़ते आ रहे हैँ। आज की टेक्नोलॉजी और डिजिटल वर्ल्ड को लेकर ह्यूमन लाइफ के उस ट्रैक को दिखाने की कोशिश की गयी है जो आने वाले समय मे काफी खतरनाक है। यू कह लीजिये कि कहानी का फ्लो साइंस फिक्शन की ओर बढ़ता जाता है और इमोशन, मोहब्बत प्यार दोस्ती चाहत इन सबकी धज्जियाँ उड़ती जाती हैँ। किताब बहोत कुछ महसूस भी कराती है और ये सोचने पर मजबूर करती है कि हमने अपने आस पास कैसी दुनिया बना ली है। एक लाइन मे कहूं तो ये किताब एक भोली भाली और एक खतरनाक लड़की की कहानी है और उस लड़की को ये पता ही नहीं कि वो खुद भोली है या खुद ही खतरनाक है।
एक लेखक को किताब लिखने और उसे प्रकाशित करने मे किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है ?
इस सवाल पर पहले गुस्सा आता है। गुस्सा इसलिए क्योंकि किताब प्रकशित करवाना आसान होता तो क्या मेरे पिता की किताबें बक्से मे बंद रह जाते? उनके वर्क चूहे खा जाते? 26 जुलाई मे उनकी रात दिन की मेहनत के हिस्से, वो कहानियाँ वो किस्से बह जाते? नहीं.. हरगिज़ नहीं। किताबें छपवाना आसान होता तो आज मेरे अब्बू की भी कुछ किताबें किताबों के बाजार मे होते। उन किताबों के अच्छे टाइटल होते, खूबसूरत कवर होते। उन किताबों के बैक कवर पर मेरे पिता की तस्वीर होती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि किताबें कभी भी छपवाना आसान नहीं था। एक लेखक सिर्फ लेखक नहीं होता। उसके सर पर और भी ज़िम्मेदारी होती है। और ज़्यादातर ज़िम्मेदारी इंसान को गरीब बना देती है, इतना गरीब कि उसे अपने सपनो को खुद ही किसी पेटी या बक्से मे बंद करना पड़ता है। ज़रा सोचके देखिये कि अगर आपके सपने को बक्से मे आप खुद बंद कर दें तो क्या वो सपने मर नहीं जाएंगे? इतना मुश्किल है किताब पब्लिश करवाना।
आज भी वही हाल है, लेखक मेरे पिता की तरह ही अपने दूसरे काम, दूसरी ज़िम्मेदारी पूरी करते हुए समय निकाल कर अपने सपनो की किताबें तैयार करते हैँ। महीनों मे एक किताब रेडी करते हैँ और फिर पब्लिशर तलाश करने निकलते हैँ। इन्हे पब्लिशर नहीं मिलते, लूटने वाले व्यापारी मिलते हैँ। पब्लिशिंग पैकेज के नाम पर इनसे मोटी रकम वसूल करते हैँ और फिर कुछ किताबें देकर इन लेखकों को फिर सें उसी हाल पर छोड़ देते हैँ जहाँ सें वो शुरू हुए थे। एक किताब से तो कहानी ख़त्म नहीं होती सपनो की, फिर दूसरी किताबों के लिए लेखक पैसे कहाँ सें लाये? क्या बार बार वो खुद अपनी किताबो को पब्लिशिंग पैकेज की भेंट चढने दे?
उसके बाद हैँ ये पुराने ट्रेडिशनल पब्लिशर। इन्हे लगता है कि इनके पास जो पाण्डुलिपियाँ आ रही है वो बेकार हैँ, उन्हें पढ़ना ही नहीं चाहिए। गलती सें एकाध पढ़ ली गयीं तो किसी फ़िल्म प्रोडूसर की तरह ये लेखक को लिखना सिखाने लगते हैँ। दुनिया भर की चेंज बताकर उस कहानी और किताब का असल रूप बिगाड़ देते हैँ। ट्रेडिशनल पुबकिशर अमीर लेखकों की कठपुतली बन गए हैँ। यहाँ साहित्य के नाम पर पूंजीवाद, अहंकार, राजनीती और शौक़ीयाने लेखकों की बकवास महफिलें होती हैँ बस। इसलिए किताब पब्लिश करवाना आसान नहीं हैँ।
किताब छप सकती हैँ, शर्त ये है कि वो प्रकाशन मिल जाए जहाँ स्वार्थ नहीं किताब की वैल्यू हो। जहाँ बिजनेस नहीं लेखक की कद्र हो। जहाँ नया पुराना अमीर गरीब नहीं देखा जाता हो, बस लेखक का जूनून और उसकी किताब का मज़मुन देखा जाता हो।
अपने नये पाठको को आपका कोई संदेश ?
पाठक ही वो सर्वे सर्वा होते हैँ जो किसी किताब को उसकी सही मंज़िल तक लेकर जाते हैँ। अपने पाठको सें बस यही कहना चाहूंगा कि आपका साथ और प्यार मिलता रहे ताकि हम लिखते रहें। हमारे अंदर का लेखक बस आपके लिए जीवित रहे।
आपकी आगामी किताब के बारे मे कुछ कहना चाहेंगे ?
मेरी अगली किताब का नाम है इंडियन मुस्लिम। अभी तो कुछ ही चैप्टर्स हुए हैँ। लेकिन उम्मीद है कि इसी साल उसे ला सकूँ। पेन पॉकेट बुक्स सें ही वो किताब बाजार मे आनी है। ये किताब प्रेजेंट, फ्यूचर, पास्ट एक साथ लेकर चलते हुए भारत के मुस्लिमो के अच्छे बुरे हालात को दर्शाती है। इमोशन, राजनीती, दंगा खून और सच। फिलहाल इस किताब के बारे मे ज़्यादा बोलना ठीक नहीं होगा. हाहाहाहा…
नये लेखको को कोई सलाह कि उन्हे अपनी लेखनी और प्रकाशन पर क्या खास ध्यान देना चाहिए ?
वो जो भी लिखें जैसा भी लिखें ये मानकर चलें कि वो अच्छा लिख रहे हैँ। दुनिया की ना सुने। हाँ, ग्रामर और स्पेलिंग का ध्यान ज़रूर रखें। क्योंकि मेरी स्पेलिंग की टाइपो मिस्टेक बहोत होती है और ये लेखक के लिए ज़रा आउट ऑफ़ डीसीप्लीन वाली बात है। बाकी सब बढ़िया है। रही बात पब्लिश करवाने की तो भाई, एक दम अपना विज़न क्लियर रखिये। पैसे देकर बिलकुल ना छापवाएँ। अगर आप पैसो सें अपनी बुक पब्लिश करवाते हैँ तो यकीन मानिये या तो आप लेखक नहीं हैँ या फिर अपने अंदर के लेखक की आप खुद ही हत्या कर रहे हैँ। पैसे देकर आप एक या दो किताब पब्लिश करवा सकते हैँ, उसके बाद? उसके बाद आप रुक जायेंगे, ठहर जाएंगे… इस तरह तो आप मर जाएंगे।
पेन पॉकेट बुक्स प्रकाशन और दूसरे प्रकाशन मे क्या अंतर है ?
बेस्ट पब्लिकेशन। पेन पॉकेट बुक्स भारत का वो पब्लिकेशन है जो आने वाले समय मे बहोत से भ्रम को तोड़ने वाला है। जिन लोगो ने लेखकों के सपनो को पैसो मे तौला है, उनकी दूकान तक बंद करने वाला है ये पब्लिकेशन। राइटर्स के लिए ये एक ऐसा प्लेटफार्म है जहाँ सें सपने पुरे होने की शुरुआत होती है। नये लोगो के लिए उम्मीद है। काश ऐसा ही कोई पब्लिकेशन मेरे मरहूम पिता के समय होता।
हम आपके जूनून और जज़्बात को समझ सकते हैँ। खैर, एक लेखक के तौर पर आपको किन संघर्षो का विशेष सामना करना पड़ा और उसे आपने कैसे निभाया ?
ये सवाल ज़रा रिपीट सा है, ऊपर जो सवाल हुए हैँ उसमे मैंने अपने पिता और दूसरे तमाम लेखकों के संघर्ष का ज़िक्र कर दिया है। फिर भी मै इस सवाल पर उदाहरण की तरह जवाब दे देता हूँ। मेरी पहली बुक फलक तलक जब मैंने पूरी कर ली तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था। क्योंकि एक किताब का पूरा लिख लेना भी अपने आप मे बहोत बड़ी बात होती है। यहाँ तो लोग चार लाइन्स की शेरो शायरी लिख कर इतराने लगते हैँ। खैर, किताब पूरी हुई, अब इसे पब्लिश कैसे कराएं। सर्चिंग शुरू हुई। अपने बॉलीवुड के कुछ दोस्त सीनियर्स सें चर्चा हुई। कुछ लेखकों के नंबर मिले, पता चला कि कुछ साल पहले उन्होंने पैसे देकर पब्लिश करवाया और अभी तक उनका वहीँ वाला इन्वेस्ट रिटर्न नहीं आया है। फिर कुछ ट्रेडिशनल पब्लिशर तलाश किया, पता चला कि एक एक साल तक रिप्लाई ही नहीं देते। इतना अहंकार, मानो आमिर खान का प्रोडक्शन हाउस हो। स्क्रिप्ट पढ़ने का समय ही नहीं। हालांकी वहां भी तीन महीने मे सिलेक्शन या रिजेक्शन का जवाब आ जाता है। फिर एक फ्री सेल्फ पब्लिशर ऑनलाइन मिला। कवर खुद बनाओ, खुद बुक सेटप करो और पब्लिश होने के बाद खुद बेचो। पहली बुक की एक्साइटमेन्ट थी सो कर दिया। मज़ा आया लेकिन अनुभव भी मिला कि कोई तो ढंग का मिले और फिर पेन पॉकेट बुक्स के असगर अली शेख और आलम भाई मिले.. और देखिये मेरी दूसरी किताब भी आ गयी है… अगली आने वाली है और मै बहोत खुश हूँ। थैंक यू पेन पॉकेट बुक्स।
आपका बहोत बहोत शुक्रिया । आपको और आपकी किताब को ढेरो बधाई और शुभकामना ।
आपका भी शुक्रिया।